श्रीनगर से कश्मीरी लेखिका और मेरे श्रीनगर प्रवास के दौरान की मेरी दोस्त
चंद्रकला ने लिखा है - 'बेटी सना अब बाकायदा कविताएँ लिखने लगी है। लेकिन उसकी
कविताओं में बस आग ही आग है। बरसों से आतंकवाद से जूझते सुलगते कश्मीर की आग
उसकी कलम में समा गई है।'
मुझे याद है 1983 में जब मैं अपने बड़े भाई मशहूर लेखक विजय वर्मा और बेटे
हेमंत के साथ कश्मीर गई थी तो सना हेमंत की ही उम्र की थी। तब चंद्रकला
श्रीनगर के सूचना विभाग का प्रकाशन सेक्शन सँभालती थी। मेरी उससे मुलाकात भी
उसके कार्यालय में हुई थी। कई बार वो मुझसे मिलने यूथ हॉस्टल आई। श्रीनगर की
कई जगह पर हम साथ साथ घूमे। चंद्रकला का पत्र मेरे हाथ में हवा में सूखे पत्ते
सा काँप रहा है। लिखती है, 'कश्मीर की सुरम्य वादियों को आतंकवादियों ने खून
से रँग डाला है। कश्मीरी पंडित अपने बरसों पुराने घरों को छोड़ देने पर मजबूर
हो जम्मू के कैंपों और अन्य दीगर जगहों पर शरणार्थी बन कर रह रहे हैं। बर्फीली
जगह के वासी धूप से चिलचिलाते मैदानों में रहने को अभिशप्त हैं। सना का ब्याह
अब तक नहीं हुआ। कहाँ से लाऊँ उसके लिए लड़का? कश्मीरी लड़के आतंकवादी होकर मर
रहे हैं। कुछ नहीं बचा है यहाँ। न वह कॉफी हाउस जहाँ हम घंटों गपशप करते थे। न
वो साहित्यिक गोष्ठियाँ और न वह माहौल।'
चंद्रकला के पति ने मुझे जैसे बरसों का फासला लाँघ श्रीनगर पहुँचा दिया। आज से
24 बरस पहले की यादें जहन में ज्यों की त्यों ऐसी बसी है जैसे कल ही कश्मीर से
लौटे हों।
वह मई का महीना था और पत्थरों का शहर जम्मू गर्मी में तप रहा था। मुंबई से
जम्मू की लंबी रेल यात्रा के बाद हम 10:00 बजे जम्मूतवी पहुँचे थे और सुबह से
ही गर्मी का यह आलम था। हमें वैसे भी आज का दिन ही यहाँ गुजारना था। जम्मू
घूमने का प्रोग्राम कश्मीर से वापसी में रखा था और यूथ हॉस्टल में तभी की
बुकिंग भी थी इसलिए होटल जैम में रुकने के लिहाज से कमरा बुक कराया और नहा
धोकर लंच लेकर यात्रा की थकान उतारने के उद्देश्य से बिस्तर पर जो लेटे तो शाम
को ही नींद खुली। सूरज ढल रहा था और सुरमई अँधेरे ने जम्मू शहर को अपनी गिरफ्त
में लेना शुरू कर दिया था। तैयार होकर ताँगे से हम तफरीह को निकले। बाजार से
गुजरते हुए अखरोट खरीदे कागजी बड़े-बड़े जम्मू का खास मेवा है अखरोट। मुंबई से
रवाना होते हुए कई लोगों ने फरमाइश की थी कि अखरोट, काला राजमा और गुच्छी ले
आना। गुच्छी मशरूम की एक जाति है जो बहुत महँगा और बहुत स्वादिष्ट होता है।
बाजार से हम जम्मू ब्रिज गए। रात गहराने लगी थी। सोचा यूथ हॉस्टल ढूँढ़ लें।
कश्मीर से लौटने पर आसानी होगी। समय की बचत होगी। जो पता हमारे पास था ताँगे
से वहाँ तक पहुँचने में डेढ़ घंटा लग गया। जम्मू की सड़कें मद्धम रोशनी में
पिली आभा बिखेर रही थी। गझिन हरियाली के बीच सँकरी सी ऊँची चढ़ाई वाली सड़क पर
चलते हुए घोड़े की चाल धीमी पड़ गई थी। जहाँ ताँगा रुका वह अँधेरे में डूबी एक
पुरानी इमारत थी। ताँगे से उतर हमने गेट पार किया। बड़ा ही रहस्यमय और कुछ कुछ
डरावना सा माहौल था। शहर से इतनी दूर इस सन्नाटे में कैसे रुकेंगे भला? फिर भी
दरवाजे पर दस्तक दी। बार बार दस्तक देने के करीब 5 मिनट बाद दरवाजा खुला। मेरी
चीख निकलते-निकलते रुकी। हेमंत डर कर मुझसे चिपट गया था। सामने धोती बंडी में,
सफेद लंबी दाढ़ी और कंधे तक लंबे सफेद बालों वाला आदमी लालटेन को कान तक उठाए
खड़ा था। भारी आवाज में उसने पूछा,
'कौन है आप? क्या चाहिए?'
विजय भाई ने हिम्मत की।
'टूरिस्ट है। यूथ हॉस्टल यही है न?
'नहीं यहाँ कोई हॉस्टल वॉस्टल नहीं है।' उसने अपनी लाल-लाल आँखें हम पर गड़ा
दी। मैं तो हेमंत को लेकर ताँगे में जा बैठी। विजय भाई थोड़ी देर पूछताछ करते
रहे फिर लौट आए होटल लौटते हुए हम विश्वास न होते हुए भी यह विश्वास करते रहे
कि वह जिंदा इनसान नहीं था। भूत ही था। बिस्तर पर नींद आने तक यह एहसास हम पर
हावी रहा।
जम्मू कश्मीर राज्य की गर्मियों की राजधानी श्रीनगर जाने वाली बस में बैठते ही
यूँ लगा जैसे पहले भी इस सड़क से गुजर चुकी हूँ और कश्मीर घाटी में बसे
श्रीनगर को देख चुकी हूँ। श्रीनगर के दोनों तरफ बहने वाली झेलम नदी जैसे
आहिस्ता-आहिस्ता आँखों के सामने से बहने लगी। उस बहाव में कितना कुछ तिरता चला
गया। पहाड़ों के अंधे मोड़, टेसू और साल के जंगल, कहीं-कहीं पीपल भी। अरे यह
तो मंडला से जबलपुर जाने वाली चिरपरिचित राई घाटी वाला रास्ता लग रहा है। 5
किलोमीटर के बाद हिमालय की वनस्पतियाँ दिखनी शुरू हुई। ठंडक भी शुरू हो चुकी
थी। दाहिने ओर उनके ऊँचे सीधे तराशे हुए सिलिका स्टोन वाले हल्के पीले पहाड़
थे और बाईं ओर टेसू का जंगल। करीब 11:00 बजे हम मांड पहुँचे। छोटा सा पहाड़ी
गाँव है मांड। चाय की दुकानें, गरम पकौड़ियाँ। देखते ही देखते पकौड़ियों की
थाली खाली हो गई। गरमागरम चाय ने ठंड में सुकून दिया। लेकिन तब तक तेज हवाएँ
शुरू हो चुकी थी और बस में बैठते ही पानी बरसने लगा। बरसते पानी का मजा ही कुछ
और था। बटोट तक काफी बारिश हुई। बटोट में हमने लंच लिया। बारिश अब थम चुकी थी
और सामने पहाड़ों पर बर्फ नजर आ रही थी। एक जगह ड्राइवर ने अचानक बस रोक दी।
देखा एक ट्रक पहाड़ से टकराकर टेढ़ा पड़ा था। सभी यात्री उतर उतर कर उस ओर
बढ़ने लगे। उतरते ही मेरी नजर ठिठक गई। पहाड़ पर बर्फ और नीचे घाटी तक फैला
लंबा ग्लेशियर नजर आया। बर्फ पर ठहरे बादल पड़ाव सा डाले थे। बस का रास्ता
बिल्कुल यू शेप का था। यूँ लगता जैसे बस वही वही चक्कर काट रही है। पटनीटॉप
आते-आते बारिश एकदम गायब हो चुकी थी लेकिन ठंड और अधिक बढ़ चुकी थी। पटनीटॉप
में हम लगभग आधा घंटे रुके। देवदार और चीड़ का घना जंगल टूर डाक बंगला... इस
डाक बंगले में रमेश दो महीने वेद राही, रेहाना सुल्तान और प्रेम पर्वत फिल्म
की पूरी टीम के साथ रुके थे। रमेश ने प्रेम पर्वत में दो मिनट का अभिनय किया
था और फिल्म के सह-निर्देशक भी थे।
जवाहर टनल हिंदुस्तान की सबसे लंबी टनल है। लगभग 4 किलोमीटर लंबी टनल में
प्रवेश करते ही हमें अँधेरे ने घेर लिया। जब आँखें अँधेरे कि अभ्यस्त हुई तो
देखा बिजली के हंडे जगह-जगह उजाला फैला रहे थे। झर झर की आवाज ने मुझे चौंका
दिया। खिड़की के बाहर हंडों के उजाले में देखा टनल की चट्टानी छत से पानी रिस
रहा था। बर्फबारी के समय कभी कभी इतनी बर्फ गिरती कि टनल के अंदर जाने और बाहर
निकलने का मार्ग बर्फ से ढँक जाता है और यात्री टनल में फँस जाते हैं।
काजू पेट में बस रुकते ही इतनी देर से रुकी चाय की तलब जाग उठी। चाय नाश्ते के
बाद हमने अखरोट खरीदे जिन्हें खाते हुए रास्ता आसानी से कट गया। यहीं अखरोट के
बगीचे भी थे। पेड़ों पर हरे हरे अखरोट लगे थे। नीचे तराई में गोल कटे कटे से
सीढ़ीदार खेत थे। जिनके चारों ओर भेड़े चर रही थी। कहीं कहीं बनजारों के खेमे
भी नजर आए।
बानिहाल पास आते ही विजय भाई बताने लगे कि लगे कि जब वे पीस कोर कैंप के
कोऑर्डिनेटर बन कर कश्मीर आए थे तो यहाँ एक दिन रुक कर अपने अमेरिकन साथियों
के साथ उन्होंने बानिहाल के बहते चश्मे में नाव खुद चलाई थी। बहाव इस वक्त भी
मुझे तेज लग रहा था। नौका उलट जाने का खतरा बना रहता है। बानिहाल पास से
श्रीनगर तक खूब अनार के पेड़ मिले और झरने इतने कि हेमंत गिनता रहा ...35 तक।
श्रीनगर पहुँचते ही मुझे लगा जैसे जन्नत में आ गए हो। उस खूबसूरत शहर में कदम
रखते ही बरखा की बूँदों ने ठंडक में और इजाफा कर दिया था। हेमंत हथेलियों में
बूँदों को दबोचने की कोशिश में उछल रहा था। हमारी योजना यूथ हॉस्टल में ही
रुकने की थी पर जिस से भी पूछते यूथ हॉस्टल कहाँ है वही अनभिज्ञता की मुद्रा
में सिर हिला देता। शाम हो चली थी और जम्मू के तपते मौसम के बाद एकदम बर्फीली
ठंडक बिस्तर में दुबक जाने की चाह जगा रही थी। इसलिए बस अड्डे के नजदीक होटल
सगीना में रात भर के लिए पनाह ली। होटल वाला कांगड़ी और चाय साथ साथ कमरे में
रख गया। बारिश ने जोर पकड़ लिया था। गर्म चाय और कांगड़ी की आँच से बड़ी राहत
महसूस हुई।
सुबह सगीना में ही चाय नाश्ता लेकर हम यूथ होस्टल में शिफ्ट हुए। रह रह कर
होती बारिश ने तंग कर डाला था। ठंड इतनी कि दो स्वेटर शॉल के बावजूद भी बदन
काँप रहा था। चाय वाला कश्मीरी लड़का अफसोस कर रहा था कि इस खराब मौसम के कारण
कश्मीर को बहुत नुकसान हुआ है। हम लोग भी दुखी थे। ऐसे में कैसे घूमेंगे। जरा
बारिश कमजोर हुई तो हिम्मत करके स्कूटर लिया और डल गेट आ गए। डल श्रीनगर के
पूर्व में शहर का दिल कही जाने वाली बेहद खूबसूरत झील है। जो श्री धारा पर्वत
की घाटी में है। 8 किलोमीटर लंबी 4 किलोमीटर चौड़ी झील के चार भागों को गगरी
नल, लोकुटदल, बोहाल और नगीन कहते हैं। लोकुटदल और बोहाल के बीच में रूपलंक और
सोनालंक नाम के ग्लेशियर भी है। रूपलंक को चार चिनारी भी कहा जाता है। नगीन
लेक नगीने की तरह डल को सजाए है। यह सबसे सुंदर और सबसे छोटी झील कही जाती है।
डल के पानी में नगीन लेक अलग से दिखाई देती है। कुछ साँवली सी...
डल लेक में शिकारा लेने के लिए जब हम किनारे की ओर बढ़े तो देखा कि सारे शिकारे
हाउसबोट सूने पड़े थे। सब पर टु लेट का बोर्ड लगा था। उदास तन्हा झील में उदास
उदास शिकारे। एक शिकारे वाले ने हमें देखते ही फौरन आ घेरा। उसकी देखा देखी
अन्य शिकारे वाले भी आकर मोलभाव करने लगे। देखते ही देखते उन्होंने इतने रेट
घटा दिए कि हम ताज्जुब करने लगे। वह हमें आधे दामों में नेहरू पार्क तक ले
जाने को तैयार था। शिकारे पर बैठते ही वह हमें पटाने लगा कि साहब डेढ़ दो घंटे
आपको डल झील में घुमाएँगे। जैसे तैसे सौदा तय हुआ। शिकारे में हम तीनों आराम
से तकियों के सहारे टिक कर बैठ गए। विजय भाई तो अखरोट खाने में व्यस्त थे और
हेमंत झील में हाथ डाले लहरें बना रहा था। शिकारे वाले ने अपना नाम रज़्ज़ाक
बताया और शिकारे का न्यू अशोका। रज़्ज़ाक बताने लगा... 'मेम साब ये सामने
कर्णसिंह की कोठी है और यह पहाड़ पर पीछे अकबर का किला। इस तरफ सबसे ऊँचा
शंकराचार्य का मंदिर है। यह स्विमिंग बोट है और इधर वोटर स्कीइंग करते हैं। एक
मिनट का दस रुपिया लगता है। ये सामने दो पहाड़ जहाँ जुड़ते हैं वह पंच सितारा
होटल है और वह जो दो स्पेशल शिकारे खड़े हैं उनमें इंदिरा गांधी आकर रुकती है।
जब वो रुकती है तो शिकारा मैं चलाता हूँ।' फिर एकाएक शिकारा रोककर उसने एक
वाटर लिली का फूल तोड़ कर मुझे दिया।
शिकारे में रज़्ज़ाक के बेटे की छोटी-छोटी पतवारें थी। हेमंत ने उन पतवारों से
शिकारा चलाया और छोटी सी टोपी भी पहनी। रज़्ज़ाक ने हमारे कैमरे से ढेर सारी
तसवीरें खींची फिर एक जगह बेंत के झुरमुट में शिकारा रोक कर हमें चाय बनाकर
पिलाई और बिस्किट भी खिलाए। उसकी बीवी न जाने कहाँ से नाव खेती आई और शिकारे
के नजदीक नाव खड़ी कर हमें फूलों के गुच्छे भेंट किए। वह बहुत खूबसूरत थी। और
उससे भी सुंदर उन दोनों का मेहमाननवाजी का तरीका। रज़्ज़ाक हमें खुले दिल से
घुमा रहा था। उसने नगीन लेक भी घुमाई। वहाँ शिकारों पर सजी कपड़े, फूल, राशन
आदि की दुकानें थी। यानि कि तैरता बाजार। फूलों से भरी नौकाओं पर फूल जैसी
सुंदर कश्मीरी औरतें गहरे रंग के फिरन और कश्मीरी जेवरों से लदी पर्यटकों को
फूल बेचती हैं। झील में तैरते बगीचों में उगी सब्जियाँ थी। कमल की डंडी जिसे
कमल ककड़ी या नदरु कहते हैं यहाँ खूब पसंद की जाती है। झील के किनारे एक विशेष
प्रकार की घास भी उगती है जिसकी चटाइयाँ बनाकर उन पर मिट्टी बिछाकर झील की सतह
पर तैरा दिया जाता है और उस पर खेती की जाती है। वैसे डल के किनारे हब्बाकदल
और माइसमां में भी बाजार है। इन बाजारों की तंग गलियों में कश्मीरी, डोगरी,
उर्दू, पंजाबी के कवि और शायर रहते हैं। पिछली बार विजय भाई जब श्रीनगर आए थे
तो उनके साथ शिकारे में बैठकर दूर-दूर तक घूमते हुए कविताएँ, गजले सुनना
सुनाना उनका शगल था। मेरा भी मन था उन सब से मिलने का। रज़्ज़ाक मियाँ की आवभगत
ने मन को गहरे छू लिया था। बेंतों के दरख्तों से निकलकर शिकारा नेहरू पार्क की
ओर मुड़ गया। मैं झील के गहरे पानी से ऊपर तैरती आती नन्ही-नन्ही मछलियों और
हरी हरी आबी घास को देख रही थी। अचानक आसमान से मोर जैसे चटकीले रंगों वाले
किंगफिशर ने झील की सतह पर पर फड़फड़ाए और पलक झपकते ही मछली उस की चोंच में थी।
रज़्ज़ाक ने बताया कि जब बर्फ गिरने का मौसम आता है तो डल पर सफेद काले पंखों
वाला परिंदों का झुंड मंडराता है और शीना प्यतो प्यतो की आवाज निकालकर बर्फ को
बुलाता है। कश्मीर की पहली बर्फबारी एक उत्सव की तरह मनाई जाती है। खुदा का
करम मानते हैं उसे।
नेहरू पार्क आ गया था। रज़्ज़ाक ने शिकारा किनारे लगाया। चिनारों से घिरे छोटे
से बगीचे में टूम और ऊपर रेस्टोरेंट है। पतझड़ के मौसम में जब चिनार के पत्ते
गिरते हैं तो सड़के उसके लाल पत्तों से अंट जाती हैं। इन पत्तों को जलाकर, सान
कर उससे कोयला बनाते हैं। नेहरू पार्क में ठंड ने दबोच सा लिया था। शिकारे में
बैठते ही रज़्ज़ाक ने कंबल और कांगड़ी दी। कांगड़ी में चिनार के पत्तों से बने
कोयले ही सुलग रहे थे। सुलगते चिनार की महक ने ठंड को ठिठका दिया था।
डल गेट से हमने रेस्तराँ के लिए स्कूटर लिया और डिनर के बाद यूथ हॉस्टल लौट
आए। यूनिवर्सिटी गेट से ही बारिश शुरू हो गई थी। हेमंत उँघने लगा था। हम दोनों
भी थक चुके थे। कमरे की खिड़कियों से कँटीली हवा बदन में चुभी भी जा रही थी।
खिड़की बंद कर कांगड़ी नजदीक रख ली। थोड़ी देर में नींद ने आ घेरा।
यूथ हॉस्टल से निकलते ही एक बाबा जी पीछे लग गए कि आप भले ही खरीदी न करें पर
शॉल इंपोरियम जरूर देखें। अपनी कार से उन्होंने लाल चौक में स्थित कश्यप शॉल
एंपोरियम हमें भिजवाया। सचमुच बेहतरीन कढ़ाई वाले शॉल, प्योर सिल्क की
साड़ियाँ बहुत खूबसूरत और उम्दा किस्म की थी। मैंने एक शॉल अम्मा के लिए और
अपने लिए साड़ी खरीदी। एंपोरियम के मालिक ने हमें कश्मीरी चाय पिलाई जिसमें
दूध नहीं पड़ता, केशर और गरम मसाले से बनाई जाती है।
एंपोरियम से निकलकर हम निशात बाग आए। पहले चाय पीकर खुद को ताजादम किया फिर
बाग घूमा। बाग क्या था मुगल स्थापत्य और कला का मानो जीता जागता नमूना था।
पीछे जबरवान पर्वत एक खूबसूरत मुसाफिर की तरह निशात बाग के विस्तृत हृदय पटल
पर मानो उतरना ही चाह रहा हो। निशात बाग से यह नजारा तब और भी मनोहारी लगा जब
बर्फ ढकी पीर पंजाल पर्वत की चोटियाँ दिखाई दी। निशात बाग के चिनार वृक्ष
मुगलों के जमाने में पर्शिया से मँगवाए गए थे। निशात बाग का डिजाइन 1633 में
मलिका नूरजहाँ के भाई आसिफ खान ने बनाया था। बाग में जबरवान पर्वत की
सिलसिलेवार ऊँचाई के अनुसार निर्मित चौड़ी चौड़ी सीढ़ियों से झरता हुआ प्रभात
अद्भुत संसार रच रहा था। इस प्रपात में डल लेक से ही पानी पंप होकर आता है। डल
पर तैरते रंग-बिरंगे शिकारे यहाँ से किसी चित्रकार द्वारा बनाए चित्र से लग
रहे थे। जो फलक तक रचे चले गए थे। कश्मीर में फूलों की क्या कमी। और फिर
मुगलिया उद्यान... विलासी मुगल शासक कबूतर, फूल और सुंदर स्त्रियों को अपने से
दूर रखते ही नहीं थे। फिर भी तमाम फूलों से लदे इस बाग में मुझे सबसे अधिक
मोहा नीली पंखुड़ियों वाले मजारपोश और गहरी लाल पंखुड़ियों वाले लालपोश के
फूलों ने। बाग के माली ने बताया कि मजार पोश हम खुद लगाते हैं पर लालपोश अपने
आप होता है। बार-बार उखाड़ना पड़ता है। वरना जंगल का जंगल घेर ले।
कैमरामैन लगातार जिद कर रहा था कि मैं कश्मीरी पोशाक में अपनी एक तस्वीर
खिंचवा लूँ। माली की संगमरमर सी बुर्राक बेहद हसीन बीवी ने कैमरामैन से पोशाक
और जेवर लेकर मुझे कश्मीरी बना दिया था। मैंने मजारपोश की क्यारियों के पास
खड़े हो तस्वीर उतरवाई।
चश्म-ए-शाही भी एक उम्दा मुगलिया उद्यान है। निशात बाग के मुकाबले काफी छोटा।
बादशाह जहाँगीर के द्वारा बनाई गई इस उद्यान की योजना 1632 में शाहजहाँ के
हाथों साकार हुई। यूँ पिता के स्वप्न को शाहजहाँ ने पूरा किया। जो खुद बेहतरीन
इमारतों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। चश्म-ए-शाही तक जाने वाली सड़क दोनों ओर
आच्छादित सघन दरख्तों के मंडप से ढक सी गई है। लेकिन जहाँगीर से भी पहले अकबर
ने कश्मीर में सबसे पहला मुगलिया बाग डल लेक के उस पार नसीम बाग नाम से
बनवाया। नसीम यानी तड़के सुबह की ताजी स्वच्छ हवा।
जहाँगीर ने कश्मीर का सबसे खूबसूरत उद्यान बल्कि सुंदरता के खजाने का हीरा
शालीमार उद्यान अपनी बेगम नूरजहाँ के लिए 1619 में बनवाया था जो आज भी जस का
तस है। सदियाँ गुजर गई पर जहाँगीर के प्यार की निशानी शालीमार उतना ही खूबसूरत
है जितना तब रहा होगा। यह उद्यान 539 बाई 132 मीटर लंबा चौड़ा चार छतों वाला
भव्य उद्यान है। यहाँ नहर का पानी पूरे बाग को सींचता है और पॉलिश्ड पत्थरों
पर से बहता हुआ शालीमार में छलछलाता रहता है। यह पानी हरहखन से आता है।
प्राचीन काल में हखन में अमृत शोधकर्ता नागार्जुन रहा करते थे। इतिहास में जो
कुछ दर्ज है उससे कहीं अधिक जानते होंगे यहाँ के ऊँचे सघन चिनार के दरख्त,
यहाँ के फव्वारे लेकिन हमें तो बस इतिहास ही बताता है। शालीमार के जिन धूल कणो
पर कभी शाही रूपसियों के कोमल चरण पड़े होंगे, अब वहाँ पर्यटकों के भारी भारी
जूतों की आवाज ही है। कहते हैं पहले शालीमार का निर्माण श्रीनगर बसाने वाले
राजा प्रवरसेन द्वितीय ने किया था फिर उसी के भग्नावशेषों पर जहाँगीर ने इसे
बनवाया।
शालीमार के झरने फव्वारे कुछ कहते से लगते हैं। नूरजहाँ के प्यार में न्योछावर
जहाँगीर ने स्वतंत्र बहते जल को बाँध-बूँधकर नर्तकी का रुप दिया और फव्वारों
में ढाला। थिरकते जल की धारा आकाश को छूने की कोशिश में असफल हो जब काले पत्थर
की शिला पर गिरती है तो क्यारियों के फूल सिहर उठते हैं। जब जहाँगीर यहाँ सैर
करने अंतःपुर को साथ लेकर आते थे तो शालीमार का सबसे खूबसूरत हिस्सा सिर्फ
उनके और नूरजहाँ की सैर के लिए होता था। बाकी के तीन हिस्से साधारण लोगों के
लिए। शालीमार के भीतर विचरते हुए मुझे लगा जैसे वहाँ का पत्ता पत्ता, फूल फूल,
अतृप्त मादकता लिए झूम रहा है।
तमाम उद्यानों की सैर के बाद हम पैदल ही डल के किनारे किनारे टहलते रहे। झील
की लहरों पर हरमुख पर्वत का डोलता अक्स कभी गायब हो जाता कभी उभर आता। किनारे
लगे कमल के फूलों पर लहरों से छिटके जलबिंदु मोती से चमक रहे थे। शिकारे कल की
बनिस्बत आज पर्यटकों को सैर कराने में ज्यादा संख्या में जुटे थे। नीले आकाश
पर कभी बादलों के टुकड़े तैरते तो कभी मुर्गाबियों के झुंड। ...कहीं से सिंकते
भुट्टों की आ रही महक से हेमंत मचल उठा था, 'दादा भुट्टा'और विजय भाई तुरंत
उसका हाथ पकड़ महक की दिशा में चल पड़े थे।
सुबह विजय भाई के लेखक मित्र आनंद हमें सूचना विभाग और यूनिवर्सिटी की सैर
कराने के लिए आ गए। आनंद को मैंने लगभग नहीं पढ़ा था पर उन्होंने मुझे
धर्मयुग, सारिका में पढ़ा था और मेरे नाम से परिचित थे। लिहाजा सारे रास्ते
मुंबई दिल्ली के साहित्य समाज पर चर्चा, तुलना होती रही। उनकी सूचना विभाग से
योजना नामक विभागीय पत्रिका निकलती थी। यही मेरी चंद्रकला से पहचान हुई थी।
पहली ही मुलाकात में इस कश्मीरी लेखिका की मेहमाननवाजी और शिष्टता ने मेरा मन
मोह लिया था। फिर हम साथ-साथ यूनिवर्सिटी की सैर पर गए थे। पिंजरे से छूटे
हिरण की तरह वह फुर्ती से हमें यूनिवर्सिटी घुमा रही थी।
'मैंने पोस्ट ग्रेजुएट यहीं से किया है। यह यहाँ का परिसर है। यह कैंटीन। यहाँ
से परिसर पार कर तमाम बड़े बड़े क्लासरूम विभागीय कक्ष सिलसिलेवार है।'
मेरा ध्यान हिंदी विभाग ने अपनी ओर खींचा। वहाँ के हिंदी अध्यक्ष मिस्टर कश्यप
थे जिन्होंने आगे बढ़ कर हमारा स्वागत किया। और कश्मीरी कहवा पिलाया। कहवा
केशर बादाम आदि के सम्मिश्रण से बना एक ऐसा पेय है जिसे पीकर बदन में बर्फबारी
से जूझने की गर्मी आ जाती है।
'यूनिवर्सिटी आई हो तो हजरत बल भी देख लो। नजदीक ही है।'
चंद्रकला के प्रस्ताव का समर्थन आनंद ने भी किया। लिहाजा हम यूनिवर्सिटी से
हजरत बल आ गए। हजरत बल मोहम्मद हजरत बल की दरगाह है जिनका पवित्र बाल इस दरगाह
की पहली मंजिल के कक्ष में रखा है और विशेष मौके पर ही वह बाल शीशे के चौकोर
चाँदी के नक्काशीदार बक्से में से आम दर्शनार्थियों को दिखाया जाता है। बहुत
पहले जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे तब ये पवित्र बाल गुम गया था।
शास्त्री जी ने ही विशेष खोजी दस्तों की सहायता से वह बाल खोज निकाला था। हजरत
बल डल के पश्चिमी किनारे पर है। सफेद संगमरमर से बनी दरगाह तक पहुँचाने वाली
सड़क के दोनों किनारों पर खाने पीने की चीजों, फूलों की चादर आदि का बाजार है।
मछली गोश्त के बड़े-बड़े टुकड़े नारंगी रंग के मसाले से लिपटे भुने सिके रखे
थे। जिनकी गंध मेरी बर्दाश्त के बाहर थी। गंध नसीम बाग आने तक मेरे साथ साथ
बनी रही। चंद्रकला कौल भी कश्मीरी ब्राह्मण है। शाकाहारी है। इन जगहों पर
शाकाहारियों की बड़ी मुसीबत हो जाती है।
कॉफी हाउस में आनंद और चंद्रकला के साथ बीता वह एक घंटा बहुत सार्थक था। आनंद
का तर्क था कि 'जब देश आजाद हुआ उसके तुरंत बाद कश्मीर में कबाइली आक्रमण शुरू
हो गए। उसके विरुद्ध सरकार कोई कठोर कदम क्यों नहीं उठाती?'
'कश्मीर का इतिहास हमारी सांस्कृतिक विरासत है। भौगोलिक परिवेश ने कितने रूप
बदले। जहाँ झील थी वहाँ पर्वत बन गए। न जाने कितने राजाओं, जातियों, वंशजों का
शासन यहाँ हुआ पर अब तो हम स्वतंत्र हैं। सतीसर अपने आप में एक इतिहास है।
तुमने कश्मीरी कवयित्री ललद्यद का नाम सुना है?'चंद्रकला ने कॉफी की घूँट भरते
हुए पूछा। 'ललद्यद 700 वर्ष पहले हुई थी तब उसने कश्मीर में न जाने ऐसा क्या
देखा जो लिख दिया ...धनुष काठ का बाण घास का / राजगीर भी मिला अनाड़ी / हाट
दुकान बिना ताले के / तीरथ दुर्लभ, दशा अनर्थक।
ललद्यद की कविता क्या कबाइली आक्रमणों के समय को बयान नहीं करती?'
मैंने ताज्जुब से चंद्रकला को देखा था। हाँ सच, ललद्यद को लोग पागल कहते थे कि
वह नंगी सड़को पर घूमती थी पर वह नंगी नहीं थी। प्रभु के दीवानेपन में उसे
अपना होश कहाँ था। कपड़ों की सुधबुध कैसे रखती।
उस रात चंद्रकला और आनंद से विदा लेने के बाद भी देर रात तक में ललद्यद के
बारे में सोचती रही थी। सतीसर झील के बारे में तो मेरे कॉलेज के दिनों में
बाबू जी ने विस्तार से बताया था। पर ललद्यद... !!!
अगले दिन मौसम बदली भरा था। लाल चौक से टैक्सी लेकर हम जामा मस्जिद, बादशाह
टूम, शाही मस्जिद आदि घूमते हुए परी महल आए। परी महल एक खूबसूरत उद्यान है
जिसे दारा शिकोह ने अपने सूफी गुरु बुल्ले शाह की स्मृति में बनाया है।
कश्मीरी झेलम को दरिया कहते हैं। डल झील के महत्व के मद्देनजर झेलम पर्यटकों
को यहाँ उतना नहीं लुभाती जितना जम्मू में लुभाती है। झेलम पर शाह हमदान
मस्जिद है। जो शहर की बहुत पुरानी मस्जिदों में से एक है। यह लकड़ी की बनी है
और इसको बनाने में छैनी, हथौड़ा, स्क्रू ड्राइवर का उपयोग नहीं किया गया। इस की
दीवारों और छत उकेरे गए बेहतरीन दृश्यावलियों से पूर्ण है। जब हम डल की सैर
शिकारे से कर रहे थे तो सामने शंकराचार्य की पहाड़ियाँ दिखी थी।
शंकराचार्य मंदिर तख्ते सुलेमान हिल की चोटी पर था। सर्पीले पहाड़ी रास्तों से
इस ऊँची चोटी तक पहुँचने में हमें काफी वक्त लगा। ऊँचे ऊँचे चीड़, देवदार के
दरख्तों का जंगल भी मिला। हेमंत न तो थका न बैठा बस चढ़ता ही गया। मुझे लग रहा
था चढ़ नहीं पाएगा। पर वह मुझसे काफी आगे चलता रहा। शंकराचार्य मंदिर पत्थरों
से बना 200 ईसा पूर्व का मंदिर है। जिसमें भगवान शंकर विराजमान है। पूरा मंदिर
घूमकर हम देर तक सीढ़ियों पर बैठे ऊँचाई से कश्मीर का नजारा देखती रहे।
डल पर हाउसबोट देखकर हेमंत मचल उठा था, 'दादा हम हाउसबोट में रहेंगे न?'
'क्यों नहीं' विजय भाई चिलगोजे छील छील कर हेमंत को खिलाते हुए मुझसे बोले 'आज
म्यूजियम और फोर्ट देख लेते हैं। कल के लिए हाउसबोट बुक करा ली है। परसों
पहलगाम चलेंगे।'
शंकराचार्य मंदिर से उतरकर हम टैक्सी में आ बैठे। पहले प्रताप सिंह म्यूजियम
क्योंकि शाम होते ही वह बंद हो जाता है। म्यूजियम के गेट पर उतरते ही आनंद मिल
गए। हाथ में डलिया जिसमें बड़ा सा हॉट बॉक्स।
'यह क्या?'
'डिनर है इसमें, आप लोग घर तो आ नहीं पा रहे हैं। मेरी बीवी के हाथ का कश्मीरी
खाना फिर खाएँगे कैसे?'
आनंद की आँखों में अपनत्व और शिकायत एक साथ लहराई। डलिया टैक्सी में रख विजय
भाई टिकट ले आए। यह म्यूजियम किसी जमाने में कश्मीर के महाराजाओं का समर पैलेस
था। 1898 में यह म्यूजियम बना दिया गया। शॉल, पेंटिंग्स, हथियार, चाँदी तांबे
और गिलट के जेवर, तांबे और काँसे के बर्तन, लाड़खी हैंडीक्राफ्ट सहित विभिन्न
देशों राज्यों से कश्मीर के राजाओं को उपहार में मिली बेशकीमती वस्तुए अद्भुत
संग्रह के रूप में मौजूद थीं। सबसे अधिक प्रभावित किया ऊन और धागों से बना
कशीदा किया श्रीनगर का नक्शा जो दीवार पर टँगा था।
18वीं शताब्दी में बने हरीपर्वत किले को अफगान गवर्नर अत्ता मोहम्मद खान ने
बनवाया। हरी पर्वत की पश्चिमी ढलान पर पार्वती का मंदिर है और किले के दक्षिणी
द्वार पर ख्वाजा मकदूम साहिब की दरगाह। हिंदू मुस्लिम एकता का ऐसा ही उदाहरण
ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह है जो दिल्ली के पास महरोली में है। दरगाह के
सामने देवी का मंदिर है। ये धार्मिक मजबूतियाँ ही तो हमें एक डोर में बांधे
हैं।
किले की सैर के बाद हमने यूथ हॉस्टल लौटकर अपने कमरे में चादर बिछाकर दस्तरखान
सजाया। कड़कड़ाती ठंड थी। बारिश की फुहारें धरती तक पहुँचते-पहुँचते बर्फ बन
जाती थी। इस मौसम की बर्फ कश्मीर में पर्यटकों को लेकर मायूसी थी। बहुत कम
पर्यटक इस वर्ष आए थे। बहुत सस्ते में हमें हाउसबोट मिल गई थी। वरना सीजन में
दाम दोगुने हो जाते हैं। हम कंबलों में घुसे कांगड़ी की आँच से गरमाए बातों
में मशगूल थे। आनंद ब्रांडी लाए थे। हम सब ने एक-एक पैग पिया और दस्तरखान पर
कश्मीरी गुच्छियों का पुलाव, कड़म का साग और चटपटा तरकारियों का अचार प्लेटो
में खाने लगे। खाना इतना स्वादिष्ट था कि तारीफ करनी ही पड़ी। तय हुआ दो दिन
के कपड़े और जरूरी सामान का बैग 9 तैयार कर टैक्सी से पहले खीर भवानी चलेंगे
फिर डल गेट। आनंद हमें खीर भवानी में मिलेंगे।
सुबह चाय सैंडविच का नाश्ता कर गर्म कपड़ों से लैस हम टैक्सी से खीर भवानी
मंदिर रवाना हुए। रात भर बरस कर बादल लापता थे और धूप छिटकी थी। चंद्रकला कौल
भी आज के दिन खीर भवानी दर्शन के लिए जा रही है। आज शुक्ल पक्ष की अष्टमी है
और मई का महीना। कहते हैं कि मई के इस खास दिन मंदिर में स्थापित रागन्या देवी
मंदिर के सामने बहते चश्मे के पानी का रंग बदल देती है। मेरी उत्सुकता लाजिमी
थी। मंदिर में प्रवेश के पहले मैंने प्रसाद फूल माला खरीदी। जिसे एक मुसलमान
बेच रहा था। खीर भवानी कश्मीरी हिंदुओं का सबसे प्राचीन तीर्थ स्थान माना जाता
है और इस मुसलमान का परिवार पीढ़ियों से यहाँ प्रसाद बेचता आ रहा है। मैंने
उससे चश्मे के पानी के बारे में जानना चाहा तो वह बोला दिन भर रुको शाम को खुद
ही देख लेना। मंदिर की बढ़ती भीड़ में भी आनंद और चंद्रकला हमें सहज ही मिल
गए। हमने मंदिर में जाकर प्रसाद फूल चढ़ाए। वहाँ कुछ कश्मीरी पंडित खीर से भरी
कटोरियों वाली थाली दर्शनार्थियों के बीच घुमा रहे थे। मैंने एक कटोरी हेमंत
के हाथ में पकड़ा दी। एक खुद ली। ऐसी स्वादिष्ट खीर मैंने पहले कभी नहीं खाई
थी। चंद्रकला ने हम पाँचों की कटोरियाँ धोकर टोकरी में रख दी। मैंने सामने
बहते चश्मे के स्वच्छ जल को देखा और कश्मीरी आस्था विश्वास के आगे सिर झुका
दिया।
डल गेट पहुँचते-पहुँचते दोपहर हो गई थी। हाउसबोट के मालिक मोहम्मद रऊफ ने
हमारे लिए लंच तैयार करके रखा था। हाउसबोट में ड्राइंगरूम, बेडरूम,
डाइनिंगरूम, टॉयलेट, बाथ रूम सब राजसी साजसज्जा से युक्त थे। फर्श पर कालीन
बिछे थे। हाउसबोट एक छोटे से पुल को पार कर दूसरे छोटे हाउसबोट से जुड़ा था।
जिसमें रऊफ अपने परिवार सहित रहता था। और हमारे लिए खाना भी वहीं पकता था। बैग
रख कर मैं चकित सी पूरा हाउसबोट घूम आई। डाइनिंग रूम में टेबल पर रउफ की
बेटियों ने खाना लगा दिया था। उसके दो छोटे बेटे दौड़-दौड़कर पानी आदि रख रहे
थे। इतनी खूबसूरत बेटियाँ बेटे ...सचमुच ईश्वर ने सौंदर्य का खजाना लुटाया है
यहाँ। लंच लेकर चंद्रकला और आनंद चले गए। हम हाउसबोट की बालकनी में कुर्सियों
पर आ बैठे। ठंडी हवा झील के पानी को अस्थिर बना रही थी। हाउसबोट भी हिचकोले
लेने लगी। जहाँ देखो जल ही जल। धरती देखने को आँखें अकुलाने लगीं। कैसे रहते
होंगे इटली के शहर वेनिस के वासी जो पूरा का पूरा समंदर पर बसा है। कृष्ण की
मथुरा भी तो समंदर पर थी।
धीरे-धीरे दीप जलने लगे। आकाश में बादलों के बीच से अष्टमी का चाँद कभी-कभी
झलक दिखला देता था। हम ऊपर सीढ़ियाँ चढ़कर खुली छत पर आकर श्रीनगर को रात की
बाँहों में पनाह लेते देखते रहे। गनीमत थी बरसात नहीं हो रही थी। हेमंत ऊँघने
लगा तो मैंने रउफ मियाँ को आवाज दे खाना और दूध मँगवाया। पर वह नींद से इतना
बेहाल था कि दो घूँट दूध पीकर सो गया। नींद मेरी आँखों को भी सताने लगी। विजय
भाई ब्रांडी का पैग बना कर रऊफ मियाँ के साथ छत पर चढ़ गए और मैं खाना खाकर सो
गई।
सुबह डल गेट से हमने पहलगाम के लिए टैक्सी ले ली। आज तो आसमान में एक ही बादल
नहीं था। दूर क्षितिज की रेखा ऐसी लग रही थी जैसे क्षितिज ने आसमान को बिन मेघ
पा धरती तक खींच लिया हो। खिड़की से ठंडी हवा आज अच्छी लग रही थी। ड्राइवर
मुसलमान था। हमने बताया कि हम पहलगाम में एक रात रुकेंगे और दूसरे दिन गुलमर्ग
जाएँगे। वह चाहे तो रुके और अगर सवारी मिल जाए तो लौट 10 जाए। उसने जी अच्छा
कहकर अवंतीपुर में टैक्सी रोकी। अवंतीपुर में 9वीं सदी के खंडहर और विष्णु जी
का मंदिर है। चरार-ए-शरीफ शेख नूरउद्दीन की जियारत है पर यह कश्मीरी संत नुंद
ऋषि की आराधना भूमि के रूप में अधिक प्रसिद्ध है। मानसबल झील का बहुत गहरा और
पारदर्शी पानी था। जिसमें किनारे-किनारे गुलाबी कमल खिले थे। यहाँ पर एक गर्म
पानी का चश्मा भी है। कश्मीर में चाहे जितनी ठंड पड़े पर, बर्फ गिरे इसका पानी
कभी नहीं जमता। हेमंत को गरम बहते पानी में हाथ डुबोकर रखने में बड़ा मजा आया।
ड्राइवर मेरे लिए कमल का एक फूल तोड़ लाया। फूल की खुशबू में मैं देर तक खोई
रही। सौहार्दता बढ़ाने का वह अद्भुत क्षण था। वेरीनाग पहुँचे तब तक बादलों और
धूप के बीच आँखमिचौली शुरू हो चुकी थी। वेरीनाग एक तालाब जैसा स्थल है। जो
प्राचीन काल की याद दिलाता है। झेलम वहीं से निकली है जो एक विशाल धारा में
तब्दील होकर बड़ी नदी का रूप ले लेती है। वहाँ बड़ी बड़ी काली मछलियाँ थी।
अनंतनाग में ढेर सारे छोटे छोटे झरने और गुफाएँ हैं। एक बड़ी गुफा है। ऐसा
माना जाता है कि भगवान विष्णु ने शेषनाग के रुप में अवतार लेकर इस गुफा में
प्रवेश किया था और अनंत कहलाए थे। मटन भी हिंदुओं का प्राचीन तीर्थ है।
मार्तंड में टूटा-फूटा सूर्य मंदिर है। जिसे ललितादित्य मुक्त पिदा ने बनवाया
था। पहलगाम पहुँचते ही बर्फीली हवा ने हमें भयभीत कर दिया। जैसे तैसे टैक्सी
से उतरे। अद्भुत हरे हरे ढलवाँ मैदान। उन पर टेंट होटल थे। ढलान पर टेंट लगाकर
होटल जैसी सुविधा दी गई थी। एक एजेंट पीछे लग गया।
'चलिए आपको बढ़िया होटल में ले चलते हैं। जहाँ बॉबी की शूटिंग के दौरान डिंपल
कपाड़िया और ऋषि कपूर रुके थे।'
कोई एजेंट अपनी तरफ खींच रहा था तो कोई अपनी। ड्राइवर ने साथ दिया। वह हमें एक
साफ-सुथरे सुविधाजनक होटल में ले आया। इस बकझक में हेमंत के बारे में मैंने
सोचा ही नहीं। उसे अपने बीच न पा हम घबरा गए। याद आया कि जब होटलों के एजेंट
हमें घेरे खड़े थे तभी एक घोड़े वाले (पोनी) को पकड़े हेमंत घोड़े पर बैठने की
जिद कर रहा था। हम फौरन होटल से बाहर निकले तो देखा हेमंत महाशय शान से घोड़े
पर बैठे होटल के नजदीक चले आ रहे हैं। मैं उसकी घुड़सवारी पर दंग थी। इतना
नन्हा बच्चा और कितने आत्मविश्वास से घोड़े पर अकेला बैठा है। विजय भाई उसे
डाँटने की जगह उसकी पीठ थपथपा कर बोले - 'शाबाश, तुमने बहुत बढ़िया घुड़सवारी
की।'
होटल में थोड़ा सुस्ता कर चाय नाश्ता करके हम पहलगाम घूमने निकले। समुद्र सतह
से 2130 मीटर ऊँचा पहलगाम एक छोटा सा गाँव है। जहाँ भेड़ पालने वाले चरवाहे ही
रहते हैं। जगह जगह भेड़ों के बाडे थे। भेड़ अपने ऊन का लबादा ओढ़े और घरों के
मालिक उस ऊन से बने गर्म कपड़े पहने ...देवदार, चीड़, फर आदि दरख्तों वाले घने
जंगलों में आदमी की चली हुई पगडंडियाँ आमंत्रण देती सी लगी। जिधर राह ले जा
रही थी हम चले जा रहे थे। घोड़े वाले कहीं से भी पीछे लग जाते। हेमंत घोड़े पर
बैठने को उतावला हो रहा था। विजय भाई ने घोड़े वाले से पूछा 'कहाँ ले चलोगे?'
बाईसारान चलते हैं, कहेंगे तो मामलेश्वर ले चलेंगे। लिद्दर के पुल पर से ले
चलेंगे। लिद्दर और शेषनाग चश्मा दिखाएँगे।'
'ठीक है चलो।'
हम तीनों तीन घोड़ों पर बैठ गए। हवाओं का शोर जारी था। घोड़े की जीन कसकर
पकड़नी पड़ी। विजय 11 भाई और हेमंत के घोड़े साथ साथ ...मैं पीछे... तभी पानी
की बूँदों ने चेहरे को छुआ। बहती लहरों का शोर भी सुनाई दिया। कुछ पल बाद ही
लिद्दर सामने थी। हम घोड़े पर से उतर पड़े। लिद्दर के पानी को छूने की धुन में
मैं गोल पत्थरों पर पैर जमाती आगे बढ़ी। छल-छल बहती तलहटी तक के दर्शन कराती
पारदर्शी लिद्दर के तेज बहाव में जैसे ही हाथ गया लगा जैसे बर्फ के ढेर को छू
लिया हो। इतना ठंडा पानी की उँगलियाँ सुन्न पड़ गई। मैंने चुल्लू में भरकर
पिया भी। स्वादिष्ट मीठा पानी। लिद्दर पर लकड़ी का पुल था जिसे पार कर हम
बाईसारान और मामलेश्वर की ओर बढ़ चले।
बाईसारान क्या था पाइन था और फर का घना जंगल मात्र ...लेकिन बेहद लुभावना...
उस जंगल में बिना ऊब कई घंटे बिताए जा सकते थे। मामलेश्वर में हमने एक छोटी सी
चट्टान पर बना भगवान शिव का मंदिर देखा। मंदिर के आगे चौड़े मैदान में झोपड़ी
बनाकर शायद पंडित जी रहते थे। हमें देखते ही बाहर आए। और साथ बैठकर गपशप करने
लगे। पंडित जी अँग्रेजी भी जानते थे। कहने लगे, '5 साल से यहाँ हूँ। घर-द्वार
त्याग दिया है। वहाँ रहकर मोह माया छूटती नहीं थी। मन वैराग्य चाहता था। इसलिए
यहाँ आ गया। अकेला रहता हूँ। अपना बनाता खाता हूँ और प्रभु नाम जपता हूँ।'
चेहरे से पंडितजी पैंतीस चालीस वर्ष के अक्खड़ युवक नजर आ रहे थे। आँखें भावहीन
कुछ कुछ डरावनी सी। आँखों का सूनापन एक भयानक सन्नाटे जैसा लग रहा था। रास्ते
में घोड़े वाले ने बताया, 'खून करके भागा है अपने गाँव से। यहाँ पंडित बना
बैठा है।' मेरी शंका निर्मूल नहीं थी। झुटपुटा घिर आया था। हमारे घोड़े
अल्पाइन वनस्पतियों के बीच से गुजर रहे थे। होटल लौटते रात हो गई। हमने होटल
में ही डिनर मँगवा लिया। थकान के कारण जल्दी नींद आ गई। बेहद ठंडे मौसम के
बावजूद रजाई कंबल के साथ कमरा भी अपेक्षाकृत गर्म था। पहलगाम के आस पास और भी
देखने लायक खूबसूरत जगह थी जैसे ट्राउट मछली के लिए प्रसिद्ध फिरिलासन जहाँ
मछली मार पर्यटक अधिक जाते हैं। शिकारगाह नामक वाइल्ड लाइफ रिजर्व जाने के लिए
सारा दिन ट्रैकिंग करनी पड़ती है। तरसर झील फूलों से भरी वादियों में है।
कोलोहोइ ग्लेशियर में एक खास जगह आने पर लिद्दर गायब हो जाती है और 27 मीटर की
दूरी पर गुरखुंभ में प्रकट होती है पर हम इन जगहों को नहीं देख पाए। एक तो इन
की दूरी अधिक थी और हमारे पास इतना समय नहीं था। वहाँ से मात्र 47 किलोमीटर है
अमरनाथ जहाँ घोड़े पर ट्रैकिंग करते हुए आराम से जाया जा सकता है।
सुबह पहलगाम की इक्का-दुक्का सोवेनियर शॉप से मैंने अखरोट की लकड़ी से बने
टेबल लैंप अपनी सहेलियों के लिए उपहारस्वरूप खरीदे। हेमंत तो वॉल हैंगिंग
चीजों को चुन चुन कर उठाता जा रहा था। उसकी पसंद सदा से लाजवाब रही है। शाम तक
हम श्रीनगर लौट आए। जब हम लोग जम्मू से श्रीनगर आए थे तो सगीना होटल के मैनेजर
ने हमें जम्मू कश्मीर टूर एंड टूरिस्ट रिसेप्शन सेंटर श्रीनगर का फोन नंबर
दिया था ताकि हम घूमने लायक जगह की जानकारी होटल बुकिंग आदि करा सके। लिहाजा
कल का ही गुलमर्ग, खिलनमर्ग और सोनमर्ग का 4 दिन का पैकेज बुक करा लिया। शाम
को हम लाल चौक घूमने निकले। यह इलाका श्रीनगर का सबसे अधिक चहल पहल भरा इलाका
है। यहाँ कई इंपोरियम कागज को काटकर बनाए गए सजावटी सामान, गलीचे और लकड़ी के
सजावटी सामान फर्नीचर की दुकानें ही दुकानें हैं। इस ठंडे बर्फीले पहाड़ी
प्रदेश में इतनी कला देखकर आश्चर्य होता है। कश्मीर की कशीदाकारी तो जग
प्रसिद्ध है। शॉल, कुर्ते पर ऐसी सुंदर कशीदाकारी कि देख कर ही खरीदने का मन
करता है। यहाँ 12 के बुजुर्ग इन कलाओं में माहिर है। मैंने सफेद बालों वाले
आँखों पर मोटे लेंस का चश्मा चढ़ाए 70 साल के बुजुर्ग को गलीचा बनाते, कसीदा
कार्य करते और पेपर से बनी वस्तुओं पर रंग और ब्रश से सुंदर चित्र बनाते देखा
तो चकित रह गई। लगा जैसे इस समूचे कला संसार के ये आधार स्तंभ है।
सुबह गुलमर्ग के लिए निकले तो ओस से नहाए आसमान पर सफेद परिंदों की पंक्ति
फूलों की झालर सी इस ओर से उस ओर तक खिंची थी। इक्का-दुक्का आवारा बादल पर्वत
शिखर पर मँडरा रहे थे। श्रीनगर से 56 किलोमीटर दूर गुलमर्ग पहुँचते ही उसके
नाम की सार्थकता स्पष्ट दिखाई देने लगी। गुलमर्ग यानी Meadow of flowers. पहले
यह गौरी मार्ग कहलाता था। पहाड़ी चश्मे, चिकनी फिसलन भरी बर्फीली ढलान और
जंगली फूलों की बहार हर तरफ छाई हुई थी। ट्रैकिंग, स्कीईंग, घुड़सवारी, गोल्फ
के खेल के लिए प्रसिद्ध गुलमर्ग में हम होटल गुलमर्ग में रुके जो यहाँ के
बेहतरीन होटल में से एक है। टूर मैनेजर बता रहा था, 'यह 18 होल वाला गोल्फ
कोर्स दुनिया का सबसे ऊँचा हरा भरा गोल्फ कोर्स है। आप सर्दियों में आते तो
देखते पूरा गुलमर्ग बर्फ का लैंड हो जाता है। तब यहाँ के एक्सीलेंट स्लोप पर
स्कीईंग करना अपने आप में एक तजुर्बा है। यहाँ पर दुनिया की सबसे ऊँची पर्वत
चोटी में पाँचवे नंबर पर आती है नंगा पर्वत चोटी जो समुद्र सतह से 8137 मीटर
ऊँची है। आप पहले लंच ले ले फिर हम निंगल नाला लेक चलेंगे।
गर्म कपड़ों से लदा हेमंत घोड़े पर बैठा बिल्कुल पहाड़ी भालू सा दिख रहा था।
निंगल नाला अफरवात और अलपत्थर पर्वतों के बीच से बर्फीली वैली में बड़ी
खूबसूरती से गिरता झरना था। बर्फ और पानी की धारा का मिलना इतना बेमिसाल था कि
हम ठगे से खड़े रह गए। विधाता भी कैसे-कैसे दृश्य गढ़ता है इस दुनिया में। एक
तरफ बर्फ एक तरफ पानी। यह पानी की धारा चंचल युवती सी चीड़ के जंगलों में ऐसी
भागी चली जा रही है जैसे समय पर न पहुँची तो बहुत देर हो जाएगी। अलपत्थर लेक
की 4511 मीटर की ऊँचाई हमने घोड़े से ही पार की। झील में पानी नाम को न था।
ठोस बर्फ से जमी झील शीशे सी चमक रही थी। हम मई में आए हैं। झील 15 जून के बाद
तो पिघलनी शुरू होती है। यह इतनी ऊँचाई पर हैं इसलिए जमी रहती है।
मुझे नंगा पर्वत देखना था इसलिए हम खिलनमर्ग गए। जैसे जंगली फूलों का गलीचा
बिछा हो। शायद इसीलिए इस खिली-खिली जगह का नाम खिलनमर्ग है। यहाँ से पूरी
कश्मीर घाटी की ऊँची चोटियों का अद्भुत नजारा दिख रहा था। नंगा पर्वत जैसे
आकाश को छूने की होड़ में ऊँचा उठता गया था।
एक ओर आकाश और पर्वत का यह खेल और दूसरी ओर कस्तूरी मृग। मैंने काव्य ग्रंथों,
पुराणों में कस्तूरी मृग के बारे में सुना था। देखा पहली बार गुलमर्ग
वन्यप्राणी संस्थान में और जब मैंने उसे अपने हाथों से छुआ तो वह घबरा कर
कुलांचे भरता झाड़ियों के पीछे छिप गया। कस्तूरीमृग ही क्या यहाँ ऐसे कई
दुर्लभ जानवर हैं जिनकी संख्या दुनिया भर में बहुत कम होती जा रही है।
गंडोला (केबिल कार) में बहुत फुर्ती से बैठना होता है। पलक झपकते ही वह चल
पड़ती है। हेमंत के बैठते ही गंडोला चल पड़ी। विजय भाई तो फिर भी चलती गंडोला
में चढ़ गए पर मेरे चढ़ने से पहले गंडोला ने स्टेशन छोड़ दिया। मैं अकेली
दूसरी गंडोला में। जैसे ही गंडोला बर्फीली जगहों के ऊपर से गुजरी लगा जैसे मैं
एक बहुत बड़ा ग्लेशियर पार कर रही हूँ। दरख्तों की जड़ों से सीधे फुनगियों के
ऊपर। चीड़ देवदार होते भी बहुत लंबे हैं। हम कितनी ऊँचाई पर है पता लग जाता है।
प्रकृति के आगे मनुष्य कितना बौना है फिर भी उसकी बुद्धि की ऊँचाई आकाश जितनी।
सभ्यता के बढ़ते चरण से अंदाजा लगाया जा सकता है। गंडोला से उतरते ही हेमंत
शिकायत करने लगा।
'मम्मी आप कहाँ थीं। हम तो बर्फ पर खूब ऊँचे ऊँचे उड़े।'
पता लग जाता है, प्रकृति के आगे मनुष्य कितना बौना है, तोते के समान।
हम आपस में चर्चा करते होटल की ओर लौट रहे थे। दो कश्मीरी साथ साथ चल रहे थे।
एकाएक वे हमारी तरफ मुखातिब हुए -
'आप तो मैदान से आए हैं। पहाड़ की सुंदरता देखने ...पर यहाँ के निवासियों के
दुख आप नहीं जानते। पाकिस्तान हर वक्त हमारे लिए सिरदर्द बना है। उसकी
आतंकवादी गतिविधियाँ देखकर भी अनदेखी की जा रही हैं। सीमावर्ती गाँवों के सिर
पर तलवार लटक रही है पर सरकार खामोश है।'
उनकी शिकायत जायज थी। कबाइली हमलों की आँच अभी भी शेष थी और कश्मीर आतंक से
घिर चुका था। हम तो वादियों के अथाह सौंदर्य में खोए थे। अंदर के ज्वालामुखी
को देखने की हमारी ताब कहाँ? होटल लौटकर भी यह सवाल मेरे जहन में सिर उठाए
रहा।
समुद्र सतह से 2730 मीटर ऊँचाई पर एक शांत खूबसूरत वैली में बसा सोनमर्ग सिंधु
नदी और गोलाई से घेरे झीलों का वह बेहद खूबसूरत स्थल है। हम घोड़ों से वहाँ तक
पहुँचे थे और वहाँ की सुंदरता से चकित थे। ग्लेशियर भी दिखा एक। धूप में पारे
सा चमकता। सिंधु नदी में ट्राउट और माहसीर मछलियाँ हैं। फिशिंग के शौकीन
अधिकतर विदेशी पर्यटक वहाँ काफी तादाद में थे।
सोनमर्ग कुछ ऊँचे स्थलों के लिए प्रसिद्ध है। समुद्र सतह से काफी ऊँचाई पर
स्थित हिमालय की प्रसिद्ध झील विशनसर 4084 मीटर ऊँचाई पर है तो 3810 मीटर
ऊँचाई पर क्रिशनसर झील है और 3658 मीटर ऊँचाई पर गंगवाल झील है। झील की
सीढ़ियों से घिरा थाजीवाज ग्लेशियर इन दिनों काफी खूबसूरत दिखता है। यह
सोनभद्र के दक्षिण में है चीड़ के दरख्तों की छाया और पहाड़ी झरनों की चाँदी
जैसी धाराओं में थाजीवाज सचमुच स्वर्गीय खूबसूरती से नहा उठता है। हरी-भरी
ढलानों पर चलना, दो डग में धरती को नाप लेने जैसा लगता है। जब हमारे घोड़े
सोनभद्र की ओर लौटने लगे तो जैसे चीड़ के दरख्त डालियाँ हिला-हिलाकर हमें विदा
कर रहे थे 'पथिक फिर आना' वे जहाँ के तहाँ स्थिर खड़े हैं बरसों से। उनके साए
में दुखी भी आ बैठता है, सुखी भी। पर वे निर्द्वंद्व हैं ...न काहू से दोस्ती
न काहू से बैर, आए हो तो सुस्ताओ, गाओ, खुशियाँ मनाओ। फिर तो तुम्हें लौट ही
जाना है। पर हम तो जहाँ के तहाँ ही रहेंगे।'
हाँ, वे जहाँ के तहाँ है और कश्मीर सुलग उठा है। कश्मीरी पंडितों के मोहल्ले
के मोहल्ले ढह चुके हैं। घाटियाँ कब्रिस्तान बन चुकी हैं और जम्मू में
शरणार्थियों के कैंप आबाद होते ही चले जा रहे हैं। चंद्रकला ने लिखा है कि
अनंतनाग में हिंदी के लेखक सर्वानंद प्रेमी पर तो आतंकवादियों ने इतना जुल्म
ढाया कि उनके और उनके बेटे के हाथ पैर काट कर आँखें निकाल कर शवों को पेड़ पर
लटका दिया कि लो देखो हिंदू होने का अंजाम देखो। काफिरों का यही हश्र है। पर
क्या यह सचमुच धर्म की लड़ाई है? या धर्म के नाम पर खूनी उत्सव मनाने का
जुनून? यह आतंकवाद है या समूची सभ्यता को उखाड़ फेंकने का सैलाब? अंधा जेहाद??
अब चीड़ के दरख्त किस मुँह से और किससे कहेंगे 'पथिक फिर आना।'